एक बदनाम लेखक की दास्तान।

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दूर से देखो तो सब कुछ बेहद खूबसूरत नजर आ रहा था और खूबसूरत हो भी क्यों ना आखिर 200 सालों की अंधेरी रात के बाद एक स्वर्णिम सुबह का जो लय हुआ था।

जयंती विशेष: सआदत हसन मंटो

मंटो के आलोचक उनके अफसानों को अदब के पैमाने पर दुरुस्त नहीं समझते, मैंने उनकी तमाम कहानी पढ़ी है जिसे तथाकथित सभ्य समाज ने अदब के लिहाज से अश्लील बताया है, मैं मंटो का कोई वकील नहीं हूं, मुझे उनके अफसानों में जो कुछ भी दिखा मैंने हू-ब-हू उसे अपनी कलम से उतारने का काम किया है, मेरे लिहाज से उनकी तहरीरें इतनी सक्षम है कि वह खुद से अपनी वकालत कर सकती हैं।
-आशीष रंजन चौधरी।

तारीख 15 अगस्त 1947, जब देश आजादी का जश्न मनाने में मशरूफ था, आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण के प्रारंभ के शब्द, “एट द स्ट्रोक आफ मिडनाइट, व्हेन द वर्ल्ड स्लीप इंडिया विल अवेक टू द लाइफ एंड फ्रीडम” हवा की तरह हर जगह फैल चुके थे और फूलों की तरह अपनी खुशबू बिखेरते जा रहे थे।
दूर से देखो तो सब कुछ बेहद खूबसूरत नजर आ रहा था और खूबसूरत हो भी क्यों ना आखिर 200 सालों की अंधेरी रात के बाद एक स्वर्णिम सुबह का जो लय हुआ था।

जहां एक तरफ़ ज़श्न हो रहा था, महफ़िलें सज रही थी, आतिशबाजीयां की जा रही थी, ख़ुशी से सब झूम रहे थे, वही दूसरी तरफ का नज़ारा बेहद मुख्तलिफ था, बड़ी संख्या में लोग पलायन करने को मजबूर थे, सांप्रदायिकता की आग पूरे मुल्क को ख़ाक करती जा रहीं थीं, सियासतदां अपनी महजबी रोटियां सेंकने को उतारू थे, लोग बड़े अदब और खामोशी से इसके तमाशबीन हो चुके थे। विभाजन की आंधी ने देश को दो भागों में बांट दिया था, हिन्दुओं के लिए हिंदुस्तान और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान।

सआदत हसन मंटो विभाजन से बेहद नाखुश थे उन्हें इन नजारों का अंधा तमाशबीन बनने का कोई शौक था, उनकी क़लम अब भी जम्हूरियत के नाम पर हुई इस धोखाधड़ी को सरेआम उजागर करने में लगी हुई थी, विभाजन से पहले मंटो बॉम्बे में एक उभरते पटकथा लेखक थे जब वो विभाजन के बाद लाहौर प्रवास कर गए, तब उन्होंने विभाजन के दुख को बयां करते हुए ऐसे-ऐसे अफसानें लिखें जिससे पढ़ने के बाद व्यक्ति विभाजन की उस त्रासदी के हर एक पल को खुद महसूस करता है, उसके दुःख, उसके अजीयतो को जीता है।

जिस्म जल जाए तो घाव भरने के बाद भी उसके निशान रह जाते हैं, मंटो के ज़ेहन में बंटवारे के घाव ने इस प्रकार से घर कर लिया था कि उसकी कितनी भी मरहम-पट्टी करो, उसके निशान बदन पर उभरे ही दिखते थे, मुल्क आजाद हो चुका था मगर खुली हवा में सांस लेने पर भी मंटो को घुटन-सी महसूस होती थी, वे एक कमरे की अपनी दुनिया से इस दुनिया को देखते और अपने अफसानों के जरिए इसके सूरत-ए-हाल को उजागर करने की कोशिश किया करते थे।

मैंने बचपन में किसी से सुना था कि लेखक अमर होते हैं, वे इस दुनिया से कभी रुखसत नहीं होते, वे अपनी कहानीयों और अपने अफसानों में सांस लिया करते हैं, जब भी कोई उन्हें पढ़ता है वो जी उठते हैं, मंटो के साथ भी कुछ ऐसा ही था।

मंटो के अफसाने विभाजन के दौर में जितने प्रासंगिक थे, आज भी उतने ही प्रासंगिक है, हालांकि मंटो के अफसाने हमेशा से ही विवादों से घिरे हुए रहे हैं, विभाजन से पहले उन्हें अपनी कहानी ‘धुआं’, ‘बू’ और ‘काली सलवार’ के लिये मुकदमे का सामना करना पड़ा तो वहीं विभाजन के बाद पाकिस्तान में ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘उपर-नीचे-दरमियान’ के लिये मुकदमे झेलने पड़े।

विभाजन के वक्त मंटो ने अपने दु:ख को बयां करते हुए कहा था कि, “मेरे लिए ये तय करना नामुमकिन हो गया है, कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है. बड़ी बेरहमी के साथ हर रोज जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अब आजाद हो गए हैं लेकिन क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है? जब हम गुलाम थे तो आजादी के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो गए हैं तब हमारे सपने किसके लिए होंगे?”

उन्होंने एक बार कहा था कि, “मेरा नाम सआदत हसन मंटो है और मैं एक ऐसी जगह पैदा हुआ था, जो अब हिंदुस्तान में है- मेरी मां वहां दफन है, मेरा बाप वहां दफन है, मेरा पहला बच्चा भी उसी जमीन में सो रहा है, जो अब मेरा वतन नहीं” इन तहरीरों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंटो को विभाजन से कितनी चोट पहुंची थी और कितना तकलीफ हुआ था।

तथाकथित सभ्य समाज ने मंटो के ऊपर अपने अफसानों के जरिए अश्लीलता परोसने का आरोप लगाया था, जिसके जवाब में मंटो ने अपनी एक तहरीर में कहा था कि, “ मैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी, मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इस लिए कि ये मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़ियादा नुमायाँ हो जाए। ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़ोह्श-निगारी, तरक़्क़ी-पसंदी और ख़ुदा मालूम क्या कुछ कहा जाता है। लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी

सलीक़े से नहीं दी जाती।”

मंटो अपने अफसानों के बारे में कहते थे कि, “ ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं अगर आप इससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये। अगर आप इन अफ़्सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इस का मतलब है कि ये ज़माना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है, मुझ में जो बुराईयाँ हैं, वो इस अह्द की बुराईयां हैं, मेरी तहरीर में कोई नक़्स नहीं। जिस नक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दर असल मौजूदा निज़ाम का नक़्स है।”

मंटो ने अपनी आंखों के सामने लोगों को धर्म-मजहब के नाम पर मरते-मारते देखा था, वो सियायत की बारिकियों से अंजान नहीं थे, वो‌ सियासतदानों की चालबाजीयों से भली-भांति परिचित थे और खुलकर उनकी आलोचना भी करते थे, उन्होंने तो एक बार ये तक कह दिया था कि “लीडर जब आँसू बहा कर लोगों से कहते हैं कि मज़हब ख़तरे में है तो इसमें कोई हक़ीक़त नहीं होती। मज़हब ऐसी चीज़ ही नहीं कि ख़तरे में पड़ सके, अगर किसी बात का ख़तरा है तो वो लीडरों का है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए मज़हब को ख़तरे में डालते हैं।” वो धार्मिक आडंबरों के भी शख्त विरोधी थे वो कहते थे कि, “पहले मज़हब सीनों में होता था आजकल टोपियों में होता है। सियासत भी अब टोपियों में चली आई है।”

मंटो के आलोचक और उनके विरोधी भले ही उनके खिलाफ कितना भी दुष्प्रचार क्यों न करते रहे, उनके अफसानों को कितना ही भला-बुरा क्यों न कहते रहे मगर मंटो की प्रासंगिकता जो आज के वर्तमान समय में भी बरकरार है ये उनके अफसानों के साहित्यिक एवं कालजयी होने का प्रमाण है, मंटो ने तो पहले ही इसकी भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि, “ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो ज़िंदा रहे”।

रिपोर्ट- आशीष रंजन चौधरी।

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