बीरान होता चेतना का द्वीप, पिघलता ज्ञान का हिमालय !

बीरान होता चेतना का द्वीप ,पिघलता ज्ञान का हिमालय !

Admin
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कवि नरेश सक्सेना ने जब हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलगीत की पंक्तियां लिखी होंगी तब उन्हें यह बिल्कुल आभास नहीं रहा होगा कि एक दौर ये भी आयेगा जब हिंदी विश्वविद्यालय में कुर्सी की लड़ाई व निजी स्वार्थ को पूरा करने में शासन प्रशासन के लोग छात्रों को शत्रु और नेता मंत्री को मित्र मानने लगेंगे। हिंदी विश्वविद्यालय पिछले एक साल से तमाम विवादों को झेलते हुए भी अपनी साख बचाने में लगा है।

विश्वविद्यालय का अस्तित्व सिर्फ़ प्रशासन से नही बल्कि उस प्रांगण में पढ़ाई कर रहे छात्रों से पूरा होता है। या यूं कहे कि किसी संस्थान में अगर छात्र न हों तो वहां अध्यापक, प्राध्यापक का कोई मतलब नहीं। मगर विगत सालों में देश के विश्वविद्यालयों में ऐसा माहौल बनता जा रहा है जहां शासन प्रशासन के लोग ही अपने को स्वयंभू मान बैठे हैं और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए सत्ता के इशारों पर काम कर रहे हैं।

विश्वविद्यालय की स्थापना तमाम रूढ़ियों,अंधविश्वासों तथा दकियानूसी विचारों से मुक्ति पाने के लिए की गई थी। धर्मनिरपेक्षता और स्वायत्तता विश्वविद्यालय के दो अहम हिस्से हैं मगर अब ये दोनो ही किसी ताख पर दिखाई देते हैं। शासन में आने वाला अपने हिसाब से विश्वविद्यालय चलाना चाहता है। शासन के केंद्र में छात्रहित कम, सत्ताहित ज्यादा जरूरी होता जा रहा है!

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा का परिसर जिन हालात से गुजर रहा है वो सिर्फ़ एक संस्थान की स्थिति को बयां नहीं करता बल्कि पूरे देश के शैक्षणिक संस्थानों की स्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है।

छात्रों को हर एक बात पर कारण बताओ नोटिस देना, निलंबन और निष्कासन करना, छात्रों के सोशल मीडिया छानना, उनके चैट पर नजर रखना , हिंदी विश्वविद्यालय के प्रशासन का अहम कार्य हो चुका है !

कुलगीत में गाई जाने वाली पंक्ति बीरान होता चेतना का द्वीप ,पिघलता ज्ञान का हिमालय ! चेतना का द्वीप है, ज्ञान का हिमालय, हिंदी विश्वविद्यालय। ‘ को सुनकर क्षण भर के लिए कोई भी गर्व से भर सकता है मगर इसको सार्थक होते देखना यहां बड़ा ही कठिन है।

पूर्व कुलपति रजनीश शुक्ल के कार्यकाल में गाय बछड़े की पूजा का नोटिस निकलता है तो हाल ही में राम मंदिर पूजन के दौरान प्रशासन सुंदर काण्ड पाठ कराता है। दूसरी ओर ईद मनाने और इफतारी करने पर रोक भी लगा देता है। ऐसे में प्रशासन किस विचारधारा के अनुसार कार्य कर रहा है वह बताने की जरूरत नहीं।

छात्रों की सुविधाओं, पठन पाठन और पुस्तकों के लिए कम बजट का हवाला देने वाला प्रशासन वित्त वर्ष पूरा होने से पहले परिसर में मूर्ति बनवाने,सेल्फी प्वाइंट बनवाने, सुंदर काण्ड पाठ करवाने,झांकी लगवाने, विश्वविद्यालय में लाइट झालर लगवाने का पैसा तुरंत कैसे पास करवाता है ये तो प्रशासन ही जाने। मगर जानना तो आपको भी चाहिए कि पठन पाठन के लिए आवंटित धनराशि को क्या ऐसी गतिविधियों में खर्च करना ठीक है?

छात्रों और प्रशासन के बीच लड़ाई लगातार बढ़ रही है। कुछ छात्रों को निलंबित कर दिया गया है और कुछ छात्र कोर्ट से लड़ाई जीत कर वापस भी आ गए हैं। कोर्ट ने शिक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व कुलपति भीमराय मैत्री की नियुक्ति को अवैध बताया ऐसे में सवाल मंत्रालय पर भी उठता है और यह भी आशंका जताई जा सकती है कि हिंदी विश्वविद्यालय के निवर्तमान पदाधिकारी और शिक्षा मंत्रालय से जुड़े लोगों ने माननीय राष्ट्रपति को भी अंधेरे में रखा।

नज़ीर हाट के नाम से जाना जाने वाला प्वाइंट अब सावरकर के नाम से जाना जा रहा है। प्रशासन के लोगों का कहना है कि नजीर साहब की मूर्ति तो अब भी है, बस स्वतंत्रवीर सावरकर के नाम से संकुल बनाया गया है। यह तो वही बात है कि गांधी की मूर्ति लगाओ और भवन का नाम नाथूराम गोडसे रख दो। आगे ऐसा हो भी सकता है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के परिसर में महज गांधी की प्रतिमा बचे, विचार और गांधी के चिंतन को एकदम नष्ट कर दिया जाय! दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्वविद्यालय ने रानी लक्ष्मी बाई के नाम से महिला छात्रावास बनाने के लिए जो पैसा पाया था अब उस छात्रावास के बन जाने के बाद आर एस एस की महिला प्रमुख लक्ष्मीबाई केलकर के नाम से जाना जाएगा। विवेकानंद की ऊंची प्रतिमा बनाने के लिए दौड़ते शिक्षक और प्रशासन के लोग छात्रहित को ध्यान देने के बजाय उनको नोटिस थमाने और निलंबित करने में लगे हैं। लग ऐसा रहा है कि आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय का यह द्वीप विचारों , शैक्षणिक गतिविधियों आदि से दूर होकर वीरान हो जाएगा और यहां सिर्फ सत्ता राग गाने वाले लोग ही दिखाई देंगे।

ज्ञान के इस हिमालय पर पड़ने वाली रोशनी की किरण भी बुझती दिखाई दे रही है। व्यक्तिगत कलह से विश्वविद्यालय की छवि धूमिल करने वाले लोग इस संस्था को कहां ले जायेंगे, ये चिंता का विषय है। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के आंगन में चल रही ऐसे मनमानी का जिम्मेदार कौन है? यह किसी के इशारे और शह के बिना संभव भी नही ! फिर कौन है जो इस गुलजार द्वीप को वीरान करने में जुटा है,जो ढहा देना चाहता है ज्ञान के इस विशाल हिमालय को।जवाब आपको देना है, सवाल मेरा है, और जवाब की कोई जल्दी भी नहीं।

रिपोर्ट: विवेक रंजन

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