25 जून, 1990 की वो घटना जिसने दहला दिया हर किसी का दिल

Attention India
4 Min Read

25 जून, 1990 की वो घटना जिसने हर किसी के रोंगटे खड़े कर दिए, इतना ही नहीं जिसने भी इस घटना के बारें में सुना उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी जी हां 25 जून 1990 को कश्मीरी पंडित महिला गिरिजा टिक्कू ने एक ऐसी भयावह घटना को झेला, जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। कश्मीरी हिंदुओं के विरुद्ध बढ़ती हिंसा की पृष्ठभूमि में, उन्हें जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF)के अलगाववादी आंदोलन से जुड़े आतंकवादियों द्वारा किडनेप कर लिया गया, उन पर क्रूरता से हमला किया गया और उन्हें अकल्पनीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा। कश्मीर में अत्याचारों पर विरोध के बावजूद, टिक्कू की पीड़ा को काफी हद तक अनदेखा किया गया और उस पर ध्यान नहीं दिया गया।

बांदीपुरा के एक सरकारी स्कूल में प्रयोगशाला सहायक के रूप में काम करने वाली टिक्कू लक्षित हत्याओं के उपरांत कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन के बाद अपने परिवार के साथ घाटी से भाग गई थी। अपने लंबित वेतन को लेने के लिए जब वह वापस लौटी, तो एक दुखद मोड़ आया, जब आतंकवादियों ने उन्हें एक सहकर्मी के घर से किडनेप कर लिया, इस बात से अनजान कि वह राजनीति में शामिल नहीं थी।

कुछ दिनों के उपरांत ही उनका क्षत-विक्षत शव बरामद हुआ, उनके शरीर को बड़ी ही बेरहमी से आरी से काटा गया था, जो उनके साथ की गई अमानवीयता का एक गंभीर प्रमाण साबित हुआ। उनका मामला गंभीर होने के बावजूद, न्याय कभी नहीं मिल सका। अपराधियों का न तो नाम बताया गया और न ही उन्हें पकड़ा गया, और मीडिया कवरेज भी न हो सका, जो कश्मीरी पलायन के व्यापक आख्यानों के नीचे दब गया।

वहीं 1989-90 के उपरांत से कश्मीर में ऐसे कई केस भी हुए, जहां जेहादी भीड़ न केवल आतंकवादियों को लेकर, बल्कि कभी-कभी विशेष समुदाय के पड़ोसियों और सहकर्मियों को लेकर बड़ी संख्या में हिंदुओं के घरों के बाहर ‘आज़ादी आज़ादी’ के नारे लगाने लगे, और देखते ही देखते जबरन घर के अंदर घुस गये और फिर हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार किया और तुरंत हिंदू पुरुषों को गोलियां दाग कर मौत के घाट उतार दिया, कुछ अन्य ऐसे भी आतंकवादी थे कि उनके डर से कश्मीरी पंडितों को अपनी जान और अपनी महिलाओं और बेटियों की इज्जत बचाने के लिए इस्लाम धर्म को अपनाना पड़ गया।

इतना ही नहीं तब से घाटी कट्टरपंथियों का गढ़ बन चुकी है और कभी धरती के स्वर्ग के नाम से जाने जानी वाली यह घाटी खून-खराबे और अपने मूल निवासियों के प्रति नफरत के नर्क में बदल गई है। तीन दशक के उपरांत भी कश्मीर में कश्मीरी पंडित होना अपराध ही है। आज भी जब कश्मीरी संगठन अपने जुल्मों के विरुद्ध इन्साफ मांगने देश की सर्वोच्च अदालत में जाते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट बार-बार इसे पुराना केस कहकर सुनवाई करने तक से मना कर देती। ये वही अदालतें हैं, जो 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों की तो सुनवाई करती हैं, अपराधियों को सजा भी सुनाती हैं, लेकिन इसके 6 साल बाद हुआ नरसंहार न्यायपालिका के लिए पुराना हो जाता है। कम से कम उन पीड़ितों पर हुए जुल्मों का न्यायालय में दस्तावेजीकरण ही किया गया होता, तो आज उन्हें कोई झूठा बोलने तक की हिम्मत न कर पाता।

Share This Article
Exit mobile version